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रविवार, 10 अप्रैल 2011

kuchh KAVITAEN

 रे पथिक! तू कौन ?
बोल तू क्यूँ मौन? 
क्या तोड़ कर आया कोई भीषण कारा ?
या..स्वजनों ने तुम्हे बिसारा....
है दार्शनिक या कर्त्तव्य समर में हारा?

रे पथिक तू कौन? बोल तू क्यूँ मौन?

क्यों न दे पाता तू अपना परिचय
क्यों छुपा रहा तू उर में अपने, जो तेरे अंतर में संचय
उठ .....बैठ .....हिल-डोल.....
टोल अपने मन में फिर बोल. कुछ तो बोल.........
रे पथिक कुछ तो बोल.........

अधर शुष्क हैं अंतर की ज्वाला से 
उठ ! दो घूंट  पी......... ले जल का प्याला ले .
क्या हाथ शरीर से विलग हुए ?
जो न उठते कुछ लेने को,
क्या स्वाभिमान तुझे रोकता ?
या..
हाथ तेरे उठते केवल देने को..
अन्धकार से दर कर भागा? या प्रदीप्त कर कोई तारा?
है दार्शनिक या कर्तव्य समर में हारा?.......                
   

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