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बुधवार, 20 अप्रैल 2011

गंगा अवतरण .......

सरिते ! तुम निर्मल,  शीतल, कलुषहीन!
फिर रूकती हो किस अर्थ कहो?
तुम पतित पावनी गंगे हो,
हरदम मानव संगे हो, तुम
अविरल, अविचल, अनंत बहो......
सरिते ! तुम निर्मल,  शीतल, कलुषहीन!.....................


सरिते!
तुम अमृत बन अवतरित स्वर्ग से इस भू पर
मंद समीर, कोमल पत्र - पुष्प औ
तरु गातों को छूकर...................................
तप्त धरा की तृष्णा हर , पुलकित कर,
तृण, तरु-गातों को पल्लवित-पुष्पित कर
शुष्क धरा को कोमल, हरियाला, वासंती कर जाती,


प्राणी, प्रकृति को जीवन देकर
ऊंचे शिखरों पर बूंद - बूंद
एकत्रित होकर,
तू शीतल, फेंनित, अमृत धारा बन,
फिसल-फिसल फिर संभल - संभल
बिखर - बिखर फिर उछल - उछल
गरज - गरज फिर लरज - लरज
सरल - तरल तरुनाई पाती!

सरिते ! तुम निर्मल,  शीतल, कलुषहीन!
फिर रूकती हो किस अर्थ कहो?
तुम पतित पावनी गंगे हो,
हरदम मानव संगे हो, तुम
अविरल, अविचल, अनंत बहो......
सरिते ! तुम निर्मल,  शीतल, कलुषहीन!.....................

तुम पालन करती तारण करती,
पुन्य लुटाती पाप निवारण करती
तुम कल-कल निनाद, निश्शंक -निर्विवाद
हर - हर हर -हर का उच्चारण करती
इठलाती - इतराती - बलखाती
तुम यौवन के रंग दिखलाती!

छोड़ गरज  औ  लरज - तरज तुम,
शांत - सरल औ सहज सहज
हौले - हौले सागर में मिल जाती !
धौली - काली,  कोसी - पिन्डर
नंदाकिनी - मंदाकिनी
तुम यमुना औ गंगा बनकर
जीवन पुष्प खिला जाती
सरिते तुम निर्मल, शीतल, कलुष हीन!
फिर रूकती हो किस अर्थ कहो?   
             


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