'सागर-औ-शीशे' का रिश्ता
मुझको मुझमें-तुझमे दिखता!
तेरे मृदु भावों का आभास अनोखा
तुझसे 'सट कर' मैंने 'सोखा' ......
तू सागर तू हर शै सुन्दर
मै टूटा प्याला क्या मेरे अन्दर....
'विधना' के हाथों का आलंबन
जब देता मुझको तेरा 'चुम्बन'
मै कम्पित सा अविलम्बित सा
छलका देता कुछ 'अपना-पन'
स्नेहिल! तेरा .......'सुधा-गरल'
सहेज न पाता कुछ तो 'रिसता'
'सागर-औ-शीशे' का रिश्ता
मुझको मुझमे-तुझमे दिखता....
मै इसके 'कर' से उसके 'कर' में
कभी 'धरा' पर कभी 'अधर' में ..
तोड़ समय के सारे बंधन
हरता 'करता' के अवगुंठन
अंत में..
'मिटटी' का ये भंगुर तन
मिटटी में मिल जाना है
सबका जग में उद्देश्य यही
है, सबको सुख पहुँचाना है........
सुन्दर कविता..आप के साहित्यिक शब्द चयन से मुझे बहुत कुछ सिखने को मिलता है..
जवाब देंहटाएंकविता के साथ साथ शब्द चयन प्रसंशनीय है..
आभार
आशुतोष की कलम से....: मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :