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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

भाव आते गए कलम चलती गई......

सजनी मुझ संग स्मृतियों का अम्बार पडा है
देखो! मन ही अंतर्मन से फिर इक बार लड़ा है..
कितना चाहा स्मृतियों को साकार करूँ मैं...
फिर..स्वत: ही सोचा...हार क्यूँ स्वीकार करूँ मै?

बस! जीना चाहा स्मृतियों को अंग लगाए..
इससे पहले जाने कितने जीवन रंग सजाए..
कई चित्र अधबने रह गए स्मृति पटल में
कई अधूरे स्वप्न राख हो गए इक बहके पल में

बस! स्मृतियाँ ही तो शेष रह गई इन हाथो में
जाने क्या-क्या कहना था शेष रह गई रातों में
किन्तु; कुछ कह न सका बस दौड़ा आँचल फैलाए
दर्द ही  दो  डाल,  जी  लूँगा  इसे  अंग लगाए........

अनचीन्हे स्वप्नों सा मु
गए डगर से
अनजाने ही दो अश्रु आँचल में गिर आए
शायद! ह्रदय न देख सका हो खाली आँचल
इसी लिए तो गिर पड़े स्वत: ही दो बिंदु विमल......

.........रमेश कुमार घिल्डियाल ...बी.ई.एल , कोटद्वार
       

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