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बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

  जाने  क्यूँ ....?
 न  जाने क्यूँ मेरी उदारता को तुमने स्वार्थ समझा ..
 मैंने तो तुमको शीतलता .और तरलता दी है ..प्रिये  
 मैं तो स्वयं अगन अपने सीने में धारण करता हूँ 
और तेरी उर्वेर्ता कोमलता औ  सरलता का पोषण करता हूँ 
 सारी अगन मेरे हिस्से में ... तुझको तो बस तपन मिली 
 मेरी ही ऊष्मा से तुम सुन्दर हरी-भरी और खिली-खिली 

 मैं तुम को बस दूर गगन से निहार सका हूँ 
 मैं हूँ गतिमान, तब तो तुम को पाल सका हूँ 
 मैं छुप जाता हूँ ! क्यूँ तुम को भ्रम ने घेरा है
ये तो तुझको उष्मित करने मेरे जीवन का फेरा है  
 फिर तुम क्यूँ मुझसे नजर चुराती भाग रही हो 
 देखो मुझको कर्मशील को सोती हो या जाग रही हो 

 धरती तुम मेरी हो,  कब मैंने तुम्हे जलाया?
 तुम बर्फीली शीतलता झेल सको इस काबिल तुम्हे बनाया 
 फिर तुम मेरे पुरुष रूप को ही तो पाना चाहती हो 
 कांपती देह को मेरी ऊष्मा से क्यूँ छुपाती हो ?
 तुम जानो पुरुष के आंसू स्त्री का भी धैर्य डि गाते 
 पर स्त्री के आंसू तो कठोर दिलों को भी पिघलाते 
 जब मैं तेरे प्रति समर्पण का इक भोला भाव जगाता 
तब तुम ही बोलो कैसे किसी अन्य के गले लग जाता ?
 यदि इसे तुम प्रेम कहो तो बात जरासी जाँच जाती है 
 कौन है ? अपने प्रिय पर प्रेम अंधविश्वास बताती है ?

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