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रविवार, 11 सितंबर 2011

है बहुत मजबूत लेकिन कुछ विवशता रोकती थी

है बहुत मजबूत लेकिन कुछ विवशता रोकती थी  
 जो कदम उट्ठे थे तेरी राह में,
खुशियाँ लपकने की चाह में

कुछ तो था जो रोकता था,
सुर्खियाँ समेटने की चाह में
हाँ! तेरी बिंदिया में सूरज को बांधा था हमने 
चन्दा को तेरे ही कंगन में आंजा था हमने
तुमको "बेला और चंपा" सा समझा था हमने
तुम हीर मेरी औ खुद को समझा  राँझा था हमने
तेरे ही नैनो में दीप ख़ुशी के देखा करते थे    
ये  नैना पुलकित मन से अज्ञान-तिमिर को हरते थे  
तेरी पायल की छम-छम तेरे होने का आभास कराती 
 तू क्या जाने तेरी खुशियाँ ही मेरे मन में आस जगाती    

तू ही तो बस मेरी पलकों को सपन-सुनहरे दे जाती
तेरी छूअन-रूहानी मरुथल  को शीतलता दे जाती  
फिर  मैं क्यूँ वंचित रहता तेरे स्वर्ग सरीखे एहसासों से
चिर - आनंदित तेरी तन्द्रा क्यूँ भंग करूँ मैं आवाजों से 

'स्नेहिल' तेरी मीठी यादें तो अब भी मेरी थाती हैं 
मेरे सूने से घर को अब भी आकर वही सजाती हैं  
अपने सुख की खातिर कैसे तुझको बदनाम करूँ?
इससे तो ये ही अच्छा है सिसक-सिसक गुमनाम मरुँ...    

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