तेरे मृदु भावों का आभास अनोखा
तुजसे सट कर मैंने सोखा
तू सागर! तू हर शै सुन्दर
मैं 'टूटा-प्याला' क्या मेरे अन्दर?
'विधना' के हाथों का आलंबन
जब देता मुझको तेरा 'चुम्बन'
मैं कम्पित सा अविलम्बित सा
छलका देता अपनापन ..
'स्नेहिल' तेरा 'सुधा-गरल'
सहेज न पाता कुछ तो रिश्ता/रिश्ता
'सागर औ शीशे' का रिश्ता
मुझको मुझमे-तुझमे दि्खता...
मैं इसके कर से उसके कर में
कभी 'धरा' पर, कभी 'अधर' में
तोड़ समय के सारे बंधन
हरता करता के अवगुंठन
मिटटी का ये भंगुर तन
मिटटी में मिल जाना है
सबका जग में उद्देश्य यही है
तुजसे सट कर मैंने सोखा
तू सागर! तू हर शै सुन्दर
मैं 'टूटा-प्याला' क्या मेरे अन्दर?
'विधना' के हाथों का आलंबन
जब देता मुझको तेरा 'चुम्बन'
मैं कम्पित सा अविलम्बित सा
छलका देता अपनापन ..
'स्नेहिल' तेरा 'सुधा-गरल'
सहेज न पाता कुछ तो रिश्ता/रिश्ता
'सागर औ शीशे' का रिश्ता
मुझको मुझमे-तुझमे दि्खता...
मैं इसके कर से उसके कर में
कभी 'धरा' पर, कभी 'अधर' में
तोड़ समय के सारे बंधन
हरता करता के अवगुंठन
मिटटी का ये भंगुर तन
मिटटी में मिल जाना है
सबका जग में उद्देश्य यही है
सबको सुख पहुचना है ... रमेश घिल्डियाल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें