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सोमवार, 22 अगस्त 2011

तेरे स्वप्नों का पर्याय नही!

तेरे स्वप्नों का पर्याय नहीं, बुद्धिहीन  मै निपट अनाड़ी!

पर मैं जानू बिस्तर की छटपटाती सलवट का गम है गहरा  
मन उड़ना चाहे अंतहीन आकाशो में,  तोड़ समाजो का पहरा
दूर गगन केे चंदा- तारे बड़े लुभाते भोले मन को
 स्वच्छ चांदनी निहार रही ज्यूँ निर्मल-जल-दर्पण को
तेरे उष्मित एहसासों से समझाती मन के चंचलपन  को  
हाँ! तुम जब भी चाहो मै सत्य करूँगा तेरे दिव्य सपन को  ...   

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