कुल पेज दृश्य

बुधवार, 6 जुलाई 2011

फिर पुष्प खिले हैं बगिया में, फिर किरने हर्शाई ह

 फिर पुष्प खिले हैं बगिया में,  फिर किरने हर्शाई हैं
चंदा ने  निर्मल  चाँदनी   फिर - फिर  बरसाई  है
  विरह  से  मैं मुक्त  हुआ  हूँ  धीरे - धीरे
सावन  के  झूले  है, मस्त पवन  पुरवाई  है

क्रोध  कहाँ ? और  कैसा  दंड ?
कोमल  ह्रदय  फिर  से  अखंड
फिर से बज रही प्रीत की सहनाइ है
खिल उठा  है चमन,  हर कलि मुस्काई है ....

शूल कोमल हो चले हैं

  राह के खतरे टले हैं
न रुकेंगे अब कदम बड़ते चले है
कैसी थकन? हर तरफ तरुनाई है

हर तरफ दिव्या दीप्ति है  यहाँ पर
गहन अंधेरों ने उजालो से मात खाई है
 जो अडिग अपने पथो पर आज भी चलते रहे हैं
दोस्त!  देखो... फिर सफलता सिर्फ उन्होंने पाई है

जो न समझे प्रेम की भाषा अबोल ...
छोड़ स्वप्न ! दोस्त  मेरे, नैन खोल
....

1 टिप्पणी: